मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
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मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ