अजनबी लोग हैं मैं जिन में घिरा रहता हूँ
आश्ना कोई यहाँ मेरे फ़साने का नहीं
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मैं ख़ाक हो रहा हूँ यहाँ ख़ाक-दान में
मुझे ये क्या पड़ी है कौन मेरा हम-सफ़र होगा
होता न कोई कार-ए-ज़माना मिरे सुपुर्द
ये कौन बोलता है मिरे दिल के अंदरूँ
क्या बात करूँ जो बातें तुम से करनी थीं
आता ही नहीं होने का यक़ीं क्या बात करूँ
उड़ती है ख़ाक दिल के दरीचों के आस-पास
एक मुद्दत से उसे देख रहा हूँ 'अहमद'
ख़ाक देखी है शफ़क़-ज़ार फ़लक देखा है
शब ढले गुम्बद-ए-असरार में आ जाता है
किसी को छोड़ देता हूँ किसी के साथ चलता हूँ