समाई किस तरह मेरी आँखों की पुतलियों में
वो एक हैरत जो आईने से बहुत बड़ी थी
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ख़ुश नहीं आए बयाबाँ मिरी वीरानी को
आईना बन के अपना तमाशा दिखाएँ हम
फ़क़ीर-ए-शहर भी रहा हूँ 'शहरयार' भी मगर
रातों को जागते हैं इसी वास्ते कि ख़्वाब
ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा
गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं
इल्म का दम भरना छोड़ो भी और अमल को भूल भी जाओ
कुन-फ़यकूं का हासिल यानी मिट्टी आग हवा और पानी
इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है
फैल रहा है ये जो ख़ाली होने का डर मुझ में
अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए
राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था