फ़क़ीर-ए-शहर भी रहा हूँ 'शहरयार' भी मगर
जो इत्मिनान फ़क़्र में है ताज-ओ-तख़्त में नहीं
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अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए
ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा
समाई किस तरह मेरी आँखों की पुतलियों में
राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था
हमारे शहर की रिवायतों में एक ये भी था
गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं
वो मर गया सदा-ए-नौहा-गर में कितनी देर है
इल्म का दम भरना छोड़ो भी और अमल को भूल भी जाओ
लम्स-ए-सदा-ए-साज़ ने ज़ख़्म निहाल कर दिए
जल उठें यादों की क़ंदीलें, सदाएँ डूब जाएँ
कुन-फ़यकूं का हासिल यानी मिट्टी आग हवा और पानी
इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है