हद्द-ए-गुमाँ से एक शख़्स दूर कहीं चला गया
मैं भी वहीं चला गया मैं भी गुज़िश्तगाँ में था
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फैल रहा है ये जो ख़ाली होने का डर मुझ में
अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए
लम्स-ए-सदा-ए-साज़ ने ज़ख़्म निहाल कर दिए
इल्म का दम भरना छोड़ो भी और अमल को भूल भी जाओ
दुनिया से हर रिश्ता तोड़ा ख़ुद से रु-गर्दानी की
राज़-ए-दरून-ए-आस्तीं कश्मकश-ए-बयाँ में था
नए ज़मानों की चाप तो सर पे आ खड़ी थी
तुझ से भी कब हुई तदबीर मिरी वहशत की
ख़्वाब-ए-ज़ियाँ हैं उम्र का ख़्वाब हैं हासिल-ए-हयात
यादों की तज्सीम पे मेहनत होती है
कुन-फ़यकूं का हासिल यानी मिट्टी आग हवा और पानी