तुझ से भी कब हुई तदबीर मिरी वहशत की
तू भी मुट्ठी में कहाँ भेंच सका पानी को
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नए ज़मानों की चाप तो सर पे आ खड़ी थी
गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं
इनइकास-ए-तिश्नगी सहरा भी है दरिया भी है
दुनिया से हर रिश्ता तोड़ा ख़ुद से रु-गर्दानी की
ग़ुबार-ए-वक़्त के गर आर-पार देखिएगा
जल उठें यादों की क़ंदीलें, सदाएँ डूब जाएँ
अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए
ख़ुश नहीं आए बयाबाँ मिरी वीरानी को
दिया नसीब में नहीं सितारा बख़्त में नहीं
हमारे शहर की रिवायतों में एक ये भी था
कुन-फ़यकूं का हासिल यानी मिट्टी आग हवा और पानी