इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है
इक वो है कि ख़ामोश समुंदर की तरह है
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प्यार किया था तुम से मैं ने अब एहसान जताना क्या
वो ख़्वाब सा पैकर है गुल-ए-तर की तरह है
आँधियों की ज़द में है मेरा वजूद
इस क़दर पुर-ख़ुलूस लहजा है
है मेरा चेहरा सैकड़ों चेहरों का आईना
मिला जो धूप का सहरा बदन शजर न बना
न जाने कितने मराहिल के ब'अद पाया था
महसूस कर रहा हूँ तुझे ख़ुशबुओं से मैं
एहसास की मंज़िल से गुज़र जाएगा आख़िर
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ
ज़रा सुकून भी सहरा के प्यार ने न दिया