न जाने कितने मराहिल के ब'अद पाया था
वो एक लम्हा जो तू ने गुज़ारने न दिया
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आँधियों की ज़द में है मेरा वजूद
वो ख़्वाब सा पैकर है गुल-ए-तर की तरह है
है मेरा चेहरा सैकड़ों चेहरों का आईना
नगर नगर में नई बस्तियाँ बसाई गईं
प्यार किया था तुम से मैं ने अब एहसान जताना क्या
ज़रा सुकून भी सहरा के प्यार ने न दिया
इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है
मुझ को मिरे वजूद से कोई निकाल दे
जलती बुझती सी रहगुज़र जैसे
इस क़दर पुर-ख़ुलूस लहजा है
फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ
महसूस कर रहा हूँ तुझे ख़ुशबुओं से मैं