मुझ को मिरे वजूद से कोई निकाल दे
तंग आ चुका हूँ रोज़ के इन हादसों से मैं
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वो ख़्वाब सा पैकर है गुल-ए-तर की तरह है
आँधियों की ज़द में है मेरा वजूद
एहसास की मंज़िल से गुज़र जाएगा आख़िर
न जाने कितने मराहिल के ब'अद पाया था
इस क़दर पुर-ख़ुलूस लहजा है
प्यार किया था तुम से मैं ने अब एहसान जताना क्या
हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ
मिला जो धूप का सहरा बदन शजर न बना
इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है
महसूस कर रहा हूँ तुझे ख़ुशबुओं से मैं
फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ