नगर नगर में नई बस्तियाँ बसाई गईं
हज़ार चाहा मगर फिर भी अपना घर न बना
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हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ
मिला जो धूप का सहरा बदन शजर न बना
प्यार किया था तुम से मैं ने अब एहसान जताना क्या
वो ख़्वाब सा पैकर है गुल-ए-तर की तरह है
है मेरा चेहरा सैकड़ों चेहरों का आईना
आँधियों की ज़द में है मेरा वजूद
महसूस कर रहा हूँ तुझे ख़ुशबुओं से मैं
इस क़दर पुर-ख़ुलूस लहजा है
जलती बुझती सी रहगुज़र जैसे
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है