मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए
सौ हिजाबों में जो पिन्हाँ है नुमायाँ हो जाए
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साक़ी-ओ-वाइ'ज़ में ज़िद है बादा-कश चक्कर में है
मुझे ख़बर नहीं ग़म क्या है और ख़ुशी क्या है
अदा में बाँकपन अंदाज़ में इक आन पैदा कर
इश्क़ रुस्वा-कुन-ए-आलम वो है 'अहसन' जिस से
जब मुलाक़ात हुई तुम से तो तकरार हुई
रोक ले ऐ ज़ब्त जो आँसू के चश्म-ए-तर में है
क्या ज़रूरत बे-ज़रूरत देखना
नज़्ज़ारा जो होता है लब-ए-बाम तुम्हारा
जब तक अपने दिल में उन का ग़म रहा
मौत ही आप के बीमार की क़िस्मत में न थी
है वो जब दिल में तो कैसी जुस्तुजू
सो हश्र में लिए दिल-ए-हसरत मआब में