बे-मक़्सद महफ़िल से बेहतर तन्हाई
बे-मतलब बातों से अच्छी ख़ामोशी
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इक परिंदा शाख़ पर बैठा हुआ
बला की धूप थी मैं जल रहा था
ग़र्क़ होते जहाज़ देखे हैं
रात इक हादसा हुआ मुझ में
कभी जो मिल न सकी उस ख़ुशी का हासिल है
क्या किसी बात की सज़ा है मुझे
कभी सोचूँ कि ख़ुद मैं लौट आऊँ
गामज़न हैं हम मुसलसल अजनबी मंज़िल की सम्त
हो दिन कि चाहे रात कोई मसअला नहीं
इक साया मेरे जैसा है
बहुत नज़दीक थे तस्वीर में हम