करता है कार-ए-रौशनी मुझ को जला के दिन
करती है कार-ए-तीरगी मुझ को बुझा के रात
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जहाँ तक डूबने का डर है तुम को
आहों की आज़ारों की आवाज़ें थीं
क्या किसी बात की सज़ा है मुझे
इक परिंदा शाख़ पर बैठा हुआ
धुँद है या धुआँ समझता हूँ
बला की धूप थी मैं जल रहा था
हो दिन कि चाहे रात कोई मसअला नहीं
हादसा कौन सा हुआ पहले
कभी सोचूँ कि ख़ुद मैं लौट आऊँ
तिश्नगी पीने की शब थी
मेरी तरफ़ सभी कि निगाहें थीं और मैं