आशिक़ी का हो बुरा उस ने बिगाड़े सारे काम
अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
ज़िद है उन्हें पूरा मिरा अरमाँ न करेंगे
फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा मिलता नहीं
बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम
जवानी की है आमद शर्म से झुक सकती हैं आँखें
कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
साँस लेते हुए भी डरता हूँ
शेख़ ने नाक़ूस के सुर में जो ख़ुद ही तान ली
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं