कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
याँ धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के
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कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
तअल्लुक़ आशिक़ ओ माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
सब हो चुके हैं उस बुत-ए-काफ़िर-अदा के साथ
जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर
अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
उन्हें निगाह है अपने जमाल ही की तरफ़
एज़ाज़-ए-सलफ़ के मिटते जाते हैं निशाँ
तकमील में उन उलूम के हो मसरूफ़
ख़ुदा से माँग जो कुछ माँगना है ऐ 'अकबर'
तिफ़्ल में बू आए क्या माँ बाप के अतवार की