कुछ नहीं कार-ए-फ़लक हादसा-पाशी के सिवा
फ़ल्सफ़ा कुछ नहीं अल्फ़ाज़-तराशी के सिवा
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हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
नई तहज़ीब
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का
इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का
मुझ को तो देख लेने से मतलब है नासेहा
रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में