गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं
गुनाह करता हुआ नेकियाँ कमाता हुआ
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दिल ओ निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
वो हुस्न-ए-सब्ज़ जो उतरा नहीं है डाली पर
अंदेशे मुझे निगल रहे हैं
पहले तराशा काँच से उस ने मिरा वजूद
बताएँ क्या कि कहाँ पर मकान होते थे
जिस्मों से निकल रहे हैं साए
तुझे ख़बर नहीं इस बात की अभी शायद
वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे
तुम्हारे होने का शायद सुराग़ पाने लगे
इक आग हमारी मुंतज़िर है