जिस्मों से निकल रहे हैं साए
और रौशनी को निगल रहे हैं
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बताएँ क्या कि कहाँ पर मकान होते थे
फ़ुरात-ए-चश्म में इक आग सी लगाता हुआ
यहीं कहीं पे कोई शहर बस रहा था अभी
पहले तराशा काँच से उस ने मिरा वजूद
आए अदम से एक झलक देखने तिरी
दिल-ओ-निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे
अंदेशे मुझे निगल रहे हैं
इक आग हमारी मुंतज़िर है
अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
दिल ओ निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं