दिल ओ निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
तुम्हारा हो के भी मुमकिन है मैं रहूँ उस का
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दिल-ओ-निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
इक आग हमारी मुंतज़िर है
वो भी क्या दिन थे क्या ज़माने थे
वो हुस्न-ए-सब्ज़ जो उतरा नहीं है डाली पर
तुझे ख़बर नहीं इस बात की अभी शायद
बताएँ क्या कि कहाँ पर मकान होते थे
तुम्हारे होने का शायद सुराग़ पाने लगे
यहीं कहीं पे कोई शहर बस रहा था अभी
गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं
अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
ख़बर नहीं थी किसी को कहाँ कहाँ कोई है
आए अदम से एक झलक देखने तिरी