इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
हर गाम पे गुल खिलते ख़ुशबू का सफ़र होता
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सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
किस किस से दोस्ती हुई ये ध्यान में नहीं
मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं