मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है
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उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा
शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
किस किस से दोस्ती हुई ये ध्यान में नहीं