शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
वो शहर में है क्या जो बयाबान में नहीं
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ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा हूँ
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है