हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था
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आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा हूँ
शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में