तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था
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असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
बन के ताबीर भी आया होता
पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा
हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
किस किस से दोस्ती हुई ये ध्यान में नहीं