पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
फिर यूँ हुआ कि क़त्ल भी हम कर दिए गए
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उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा
बन के ताबीर भी आया होता
असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
शोरीदगी को हैं सभी आसूदगी नसीब
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
विसाल-ए-यार की ख़्वाहिश में अक्सर
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की