नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
इस दिल सा कोई हम ने तो काफ़र नहीं देखा
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मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
अहद-ए-कम-कोशी में ये भी हौसला मैं ने किया
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है