हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
जो सर न झुक सके वो क़लम कर दिए गए
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इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना