बन के ताबीर भी आया होता
नित-नए ख़्वाब दिखाने वाला
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सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
वो कि हर अहद-ए-मोहब्बत से मुकरता जाए
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
गिनती में बे-शुमार थे कम कर दिए गए
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे