दयार-ए-सज्दा में तक़लीद का रिवाज भी है
जहाँ झुकी है जबीं उन का नक़्श-ए-पा तो नहीं
Habib Jalib
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ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें
जवानी हरीफ़-ए-सितम है तो क्या ग़म
मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन
जुनूँ से राह-ए-ख़िरद में भी काम लेना था
दबी आवाज़ में करती थी कल शिकवे ज़मीं मुझ से
राह-ए-उल्फ़त में मिले ऐसे भी दीवाने मुझे
जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब के गुनहगार हो गए
ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
होली
पी तो लूँ आँखों में उमडे हुए आँसू लेकिन