शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
मज़ा तो जब है कि यारों के रू-ब-रू कहिए
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परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
प्यास जहाँ की एक बयाबाँ तेरी सख़ावत शबनम है
हसीन-तर
फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
फ़रेब
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है
गुफ़्तुगू (हिन्द पाक दोस्ती के नाम)
प्यास भी एक समंदर है
अभी जवाँ है ग़म-ए-ज़िंदगी का हर लम्हा
तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
दिल-ओ-नज़र को अभी तक वो दे रहे हैं फ़रेब
कभी पहलू में समुंदर के तड़प उठती हैं