तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
मैं वो चमन जो बहाराँ के इंतिज़ार में है
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मौत की आग में तप तप के निखरती है हयात
चाँद को रुख़्सत कर दो
उन को मिलता ही नहीं है दुर-ए-मक़सूद कहीं
सौ मिलीं ज़िंदगी से सौग़ातें
हुस्न तेरा कभी गुल और कभी माहताब हुआ
मेरा सफ़र
रंग पर रंग निखरते ही चले आते हैं
शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
चश्मा-ए-बद-मस्त को फिर शेवा-ए-दिल-दारी दे
अपने आ'साब के मारे हुए बेचारे अदीब
क़त्ल-ए-आफ़्ताब
देखो तो तीरा-ओ-तारीक फ़ज़ा का आलम