सौ मिलीं ज़िंदगी से सौग़ातें
हम को आवारगी ही रास आई
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फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
गर्द-ए-नफ़रत से बचा लेता हूँ दामन अपना
उर्दू
बहुत बर्बाद हैं लेकिन सदा-ए-इंक़लाब आए
शम्अ' का मय का शफ़क़-ज़ार का गुलज़ार का रंग
लहू पुकारता है
मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम
तबस्सुम-ए-लब-ए-साक़ी चमन खिला ही गया
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है
शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत
मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
मैं ने अपना ही भिगोया है अभी तो दामन