मैं ने अपना ही भिगोया है अभी तो दामन
तेरा दामन भी तो ऐ दोस्त भिगोना है मुझे
दाग़-ए-ग़म तू ने जो सीने में छुपा रक्खा है
अपने अश्कों से उसी दाग़ को धोना है मुझे
Anwar Masood
Gulzar
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परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब
जन्नत ओ कौसर ओ अफ़रिश्ता ओ हूर ओ जिब्रील
प्यास भी एक समंदर है
चाँद को रुख़्सत कर दो
आदमी लाख हो मायूस मगर मिस्ल-ए-नसीम
शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए
इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
वो मिरी दोस्त वो हमदर्द वो ग़म-ख़्वार आँखें
सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए
बहुत बर्बाद हैं लेकिन सदा-ए-इंक़लाब आए