जन्नत ओ कौसर ओ अफ़रिश्ता ओ हूर ओ जिब्रील
मानता हूँ तिरी तख़ईल की रानाई को
लेकिन इक उम्र से उजड़ी हुई दुनिया की ज़मीं
ढूँडती है तिरे ज़ौक़-ए-चमन-आराई को
Ahmad Faraz
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तू ने ख़ुद तल्ख़ बना रक्खी है दुनिया अपनी
छलकी साग़र में मय-ए-नाब गवारा बन कर
काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
बैठे हैं जहाँ साक़ी पैमाना-ए-ज़र ले कर
मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है
क़त्ल-ए-आफ़्ताब
गुफ़्तुगू (हिन्द पाक दोस्ती के नाम)
वो मिरी दोस्त वो हमदर्द वो ग़म-ख़्वार आँखें
इंक़लाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
दो चराग़
अब किसी को भी नहीं हौसला-ए-तल्ख़ी-ए-जाम