जज़्बा-ए-शौक़ की तकमील नहीं हो सकती
ज़िंदगी मौत है एहसास-ए-मसर्रत के बग़ैर
फ़क़त आसाब की तस्कीन है तौहीन-ए-हयात
सिर्फ़ हैवान है इंसान मोहब्बत के बग़ैर
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अब भी रौशन हैं
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
शम्अ की तरह पिघलते हुए दिल देखे हैं
देखो तो तीरा-ओ-तारीक फ़ज़ा का आलम
सर-ए-तूर
आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे
इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले
मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
सारे आलम में ये उड़ता हुआ गुल-रंग निशाँ
हाथों का तराना
ज़ुल्म और जहल पर इसरार करोगे कब तक