हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
चमन में आतिश-ए-गुल तेज़-तर है
निगार-ए-एशिया है गुल-ब-दामाँ
कि ईद-ए-शोला-ओ-जश्न-ए-शरर है
Rahat Indori
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दिल-ओ-नज़र को अभी तक वो दे रहे हैं फ़रेब
फ़रेब
गो मिरे सर पे सियह रात की परछाईं है
हाथों का तराना
चाँद को रुख़्सत कर दो
हसीन-तर
इक सुब्ह है जो हुई नहीं है
निकहत-ओ-रंग का तूफ़ान उमँड आया है
तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
तख़्लीक़ का कर्ब
सारे आलम में ये उड़ता हुआ गुल-रंग निशाँ
शुऊर