इंक़लाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
बहुत आहिस्ता नहीं है जो बहुत तेज़ नहीं
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इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
गो मिरे सर पे सियह रात की परछाईं है
तबस्सुम-ए-लब-ए-साक़ी चमन खिला ही गया
शुऊर
मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो
कभी पहलू में समुंदर के तड़प उठती हैं
याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत
इसी लिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
ये तो हैं चंद ही जल्वे जो छलक आए हैं
शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
रंग पर रंग निखरते ही चले आते हैं