परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
वो नौ-बहार-ए-नाज़ अभी रहगुज़र में है
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तू हक़ीक़त को समझता है तिलिस्मी तस्वीर
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
निकहत-ओ-रंग का तूफ़ान उमँड आया है
फूटने वाली है मज़दूर के माथे से किरन
फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
एक ख़्वाब और
इक सुब्ह है जो हुई नहीं है
तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
आए हम 'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' के नग़्मात के बा'द
बम्बई
शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए
शीशा-ए-दिल को अगर ठेस कोई लगती है