फूटने वाली है मज़दूर के माथे से किरन
सुर्ख़ परचम उफ़ुक़-ए-सुब्ह पे लहराते हैं
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
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Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है
उर्दू
तुम नहीं आए थे जब
माँ की आग़ोश में हँसता हुआ इक तिफ़्ल-ए-जमील
इंक़लाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
वो मिरी दोस्त वो हमदर्द वो ग़म-ख़्वार आँखें
गरचे है मुश्त-ए-ग़ुबार आदम ओ हव्वा का वजूद
ज़िंदगानी ने दिया है ये मुझे हुक्म कि तू
सारे आलम में ये उड़ता हुआ गुल-रंग निशाँ
याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत
प्यास की आग