पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
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Habib Jalib
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ये तो हैं चंद ही जल्वे जो छलक आए हैं
एक बात
प्यास जहाँ की एक बयाबाँ तेरी सख़ावत शबनम है
साल-ए-नौ
गरचे है मुश्त-ए-ग़ुबार आदम ओ हव्वा का वजूद
तू नहीं है न सही तेरी मोहब्बत का ख़याल
दिल-ओ-नज़र को अभी तक वो दे रहे हैं फ़रेब
फाँस की तरह हर इक साँस खटकती है मुझे
ज़ेहन ओ जज़्बात ओ इशारात ओ किनायात बनी
तीन शराबी
बहुत क़रीब हो तुम
दिल की आग जवानी के रुख़्सारों को दहकाए है