फाँस की तरह हर इक साँस खटकती है मुझे
नग़्मे क्यूँ घुट के रहे जाते हैं दिल ही दिल में
राज़-दाँ अपने नज़र आते हैं हर सम्त मगर
फिर भी तंहाई का एहसास भरी महफ़िल में
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देखो तो तीरा-ओ-तारीक फ़ज़ा का आलम
मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो
बम्बई
तू नहीं है न सही तेरी मोहब्बत का ख़याल
क़त्ल-ए-आफ़्ताब
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग की घनघोर घटा से छन कर
गर्द-ए-नफ़रत से बचा लेता हूँ दामन अपना
अभी पोशीदा हैं नज़रों से ख़ज़ाने कितने
सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है
वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
शीशा-ए-दिल को अगर ठेस कोई लगती है