अभी पोशीदा हैं नज़रों से ख़ज़ाने कितने
गोश-ए-इंसाँ से हैं महरूम तराने कितने
ख़त्म हो सकता नहीं सिलसिला-ए-उमर-ए-दराज़
बतन-ए-तख़्लीक़ में पिन्हाँ हैं ज़माने कितने
Habib Jalib
Allama Iqbal
Gulzar
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Wasi Shah
Anwar Masood
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
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तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
दामन झटक के वादी-ए-ग़म से गुज़र गया
उर्दू
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
प्यास की आग
पैराहन-ए-शरर
बैठे हैं जहाँ साक़ी पैमाना-ए-ज़र ले कर
मेरा सफ़र
शम्अ की तरह पिघलते हुए दिल देखे हैं
ये किस ने फ़ोन पे दी साल-ए-नौ की तहनियत मुझ को
उन के क्या रंग थे अब याद नहीं है मुझ को
एक ख़्वाब और