शीशा-ए-दिल को अगर ठेस कोई लगती है
आँसू बे-साख़्ता आँखों से छलक पड़ते हैं
लेकिन ऐसे भी हैं कुछ अश्क जो हंगाम-ए-नशात
मुस्कुराती हुई पलकों से टपक पड़ते हैं
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जन्नत ओ कौसर ओ अफ़रिश्ता ओ हूर ओ जिब्रील
अभी पोशीदा हैं नज़रों से ख़ज़ाने कितने
ये तो हैं चंद ही जल्वे जो छलक आए हैं
चाँद को रुख़्सत कर दो
उठो
कितनी आशाओं की लाशें सूखें दिल के आँगन में
मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम
अपने आ'साब के मारे हुए बेचारे अदीब
जिस तरह ख़्वाब के हल्के से धुँदलके में कोई
सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए
वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है
ख़िरद वालो जुनूँ वालों के वीरानों में आ जाओ