गरचे है मुश्त-ए-ग़ुबार आदम ओ हव्वा का वजूद
उन की रिफ़अत पे बरसते हैं सितारों के सुजूद
लाला-ओ-गुल तो फ़क़त नक़्श-ए-क़दम हैं उस के
अस्ल में ख़ाक की मेराज है इंसाँ की नुमूद
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चश्म-ए-बीना में सितारों की हक़ीक़त क्या है
जज़्बा-ए-शौक़ की तकमील नहीं हो सकती
लहू पुकारता है
अब भी रौशन हैं
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
दो चराग़
कहीं दरिया कहीं वादी कहीं कोहसार बनी
आए हम 'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' के नग़्मात के बा'द
बहुत क़रीब हो तुम
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है
आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे