चश्म-ए-बीना में सितारों की हक़ीक़त क्या है
आलम-ए-ख़ाक का जो ज़र्रा है मह-पारा है
आसमानों में भटकती हुई रूहों से कहो
ये ज़मीं ख़ुद भी चमकता हुआ सय्यारा है
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सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है
मेरे ख़्वाब
तख़्लीक़ का कर्ब
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग की घनघोर घटा से छन कर
शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो
अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों
फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
फाँस की तरह हर इक साँस खटकती है मुझे
माँ की आग़ोश में हँसता हुआ इक तिफ़्ल-ए-जमील