इक किरन टूट के सौ रंग बिखर जाते हैं
बिखरे जल्वे ब-सद-अंदाज़ सँवर जाते हैं
जावेदानी है ये दुनिया का तमाशा जिस में
नक़्श मिटते हैं तो मिटते ही उभर आते हैं
Allama Iqbal
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Gulzar
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मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ
उठो
मेरे ख़्वाब
वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है
मौत को जानते हैं अस्ल-ए-हयात-ए-अबदी
चाँद को रुख़्सत कर दो
तबस्सुम-ए-लब-ए-साक़ी चमन खिला ही गया
अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा
कहीं दरिया कहीं वादी कहीं कोहसार बनी
इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार
शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो
मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम