मौत की आग में तप तप के निखरती है हयात
डूब कर जंग के दरिया में उभरती है हयात
ज़ुल्फ़ की तरह बिगड़ती है सँवरती है हयात
वक़्त के दोश-ए-बिलोरीं पे बिखरती है हयात
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दिल की आग जवानी के रुख़्सारों को दहकाए है
ये तेरा गुलिस्ताँ तेरा चमन कब मेरी नवा के क़ाबिल है
इसी लिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
शीशा-ए-दिल को अगर ठेस कोई लगती है
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए
मैं तो भूला नहीं तुम भूल गई हो मुझ को
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग की घनघोर घटा से छन कर
चश्मा-ए-बद-मस्त को फिर शेवा-ए-दिल-दारी दे
लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं
वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब
खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार