हुस्न तेरा कभी गुल और कभी माहताब हुआ
कभी आईना कभी महर-ए-जहाँ-ताब हुआ
दिल-ए-बेताब मिरा रेग-ए-रवाँ की सूरत
तेरे दीदार की शबनम से न सैराब हुआ
Rahat Indori
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Habib Jalib
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ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
अपने आ'साब के मारे हुए बेचारे अदीब
नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों
ज़िंदगानी ने दिया है ये मुझे हुक्म कि तू
ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम
अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को
नसीम-ए-सुब्ह-ए-तसव्वुर ये किस तरफ़ से चली
प्यास की आग
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है
उठो
लहू पुकारता है