उन को मिलता ही नहीं है दुर-ए-मक़सूद कहीं
जो सदफ़ है वही ख़ाली नज़र आता है उन्हें
हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ हो या सुरमा-ए-चशम-ए-ख़ूबाँ
हल्क़ा-ए-दाम ख़याली नज़र आता है उन्हें
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वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब
मेरी दुनिया में मोहब्बत नहीं कहते हैं इसे
देखो तो तीरा-ओ-तारीक फ़ज़ा का आलम
ये किस ने फ़ोन पे दी साल-ए-नौ की तहनियत मुझ को
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
इंक़लाब आएगा रफ़्तार से मायूस न हो
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग की घनघोर घटा से छन कर
तबस्सुम-ए-लब-ए-साक़ी चमन खिला ही गया
हर एक ख़ुशी दर्द के दामन में पली है
शुऊर
जिस तरह ख़्वाब के हल्के से धुँदलके में कोई
शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ