यक-ब-यक क्यूँ चमक उट्ठी हैं निगाहें तेरी
इक किरण फूट रही है तिरी पेशानी से
और भी तेज़ हुई जाती है रुख़्सार की आग
जज़्बा-ए-शौक़-ओ-मोहब्बत की फ़रावानी से
Rahat Indori
Gulzar
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Parveen Shakir
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(907) Peoples Rate This
इत्र-ए-फ़िरदौस-ए-जवाँ में ये बसाए हुए होंट
उन के क्या रंग थे अब याद नहीं है मुझ को
बहुत क़रीब हो तुम
अभी पोशीदा हैं नज़रों से ख़ज़ाने कितने
काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
कोई हर गाम पे सौ दाम बिछा जाता है
हुस्न तेरा कभी गुल और कभी माहताब हुआ
सारे आलम में ये उड़ता हुआ गुल-रंग निशाँ
हवा-ए-सुब्ह-ए-मशरिक़ जाग उठी है
ज़ुल्म और जहल पर इसरार करोगे कब तक
पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
वुफ़ूर-ए-शौक़ की रंगीं हिकायतें मत पूछ